
शाम ढल रही थी, लेकिन राठौर हवेली में रोशनी की कोई कमी नहीं थी।
चारों ओर झूमर टंगे थे, महंगे फूलों की सजावट, महल सा मंडप, और सोने की कढ़ाई वाले पर्दे हवा से हल्के-हल्के सरक रहे थे।
शादी थी, लेकिन माहौल में उत्सव नहीं—एक भारीपन था।
हर मेहमान, हर कैमरा बस एक चेहरे को तलाश रहा था—

आर्यन राठौर।
काले शेरवानी में, उसकी चाल में वही घमंड था जो उसे उसकी दुनिया का सबसे खतरनाक नाम बनाता था।
चेहरे पर न कोई मुस्कान, न कोई घबराहट…बस एक ठंडी स्थिरता।
जैसे वो पहले ही तय कर चुका हो कि ये शादी उसके लिए सिर्फ़ एक दास्तावेज़ है—जिसपर आज दुल्हन के ख़ून से दस्तख़त होंगे।

सांवि मल्होत्रा, गहरे लाल जोड़े में सजी, भारी घूंघट में सिर झुकाए मंडप तक आई।
हर कदम जैसे उसकी रूह को तोड़ रहा था।
वो लड़की जो किताबों में “प्यार” ढूंढ़ा करती थी, आज खुद को एक ऐसे रिश्ते में बाँधने जा रही थी जहाँ न प्रेम था, न अपनापन…
बस एक सौदा था।
जैसे ही उसकी नज़रें आर्यन से टकराईं, दिल कांपा।
पंडित ने शंख बजाया—
"अब वर-वधू एक-दूसरे को वरमाला पहनाएँ।"
सांवि के हाथ काँपे, लेकिन उसने खुद को संभाला और माला आर्यन के गले में डाल दी।
आर्यन ने भी उसकी आँखों में गहराई से देखते हुए माला पहनाई।
ना मुस्कराहट, ना कोमलता…
बस एक मौन संदेश—"अब तुम मेरी हो… मेरी दुनिया की एक 'क़ीमत' बनकर।"
"अब वधू के पिता कन्यादान करें..."
पंडित की यह आवाज़ जैसे ही हवेली की दीवारों से टकराई, हर दिशा जैसे निःशब्द हो गई।
मंत्रों का स्वर धीमा पड़ गया। फूलों की खुशबू भी जैसे भारी हो गई।
और फिर वह क्षण आया—जिसे किसी ने महसूस तो किया था, पर कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
सांवि के पिता--जिनकी पीठ कभी सीधी रहती थी, जिनके फैसलों में आवाज़ गूंजती थी,
आज उनकी रीढ़ झुकी हुई थी... और आँखें ज़मीन में गड़ीं।
वो उठे, लेकिन उनके कदमों में कोई उत्साह नहीं था।
कपड़ों की सफेदी उनके भीतर के अंधेरे को नहीं छुपा पा रही थी।
हर कदम पर वो अपनी आत्मा को घसीट रहे थे।
और जब वो अपनी बेटी के पास पहुँचे,
उनकी उंगलियाँ कांप रही थीं जैसे वर्षों की थकान उन हाथों पर एकाएक उतर आई हो।
उन्होंने धीरे से सांवि की हथेली थामी...
वो हथेली जो कभी उन्होंने पहली बार थामी थी, जब वो जन्मी थी,
जिसे पकड़ कर चलना सिखाया था,
जिसे थामकर वचन दिए थे कि "जब तक ज़िंदा रहूँगा, तुझे कोई दुःख नहीं छू पाएगा..."
और आज... उसी हथेली को वो किसी और के हाथों में सौंप रहे थे।
एक बोझिल चुप्पी मंडप में फैल गई।पंडित मंत्र पढ़ता रहा...
लेकिन उन संस्कृत के शब्दों में जीवन नहीं था—बस रस्मों का बोझ था।
To be continued....
Write a comment ...